Friday, September 19, 2008

सुधरो नीतीश कुमार



सत्यकाम


आज से ठीक दस साल पहले अगस्त १९९९ में जब गाइसल में ट्रेन हादसा हुआ था, तब के रेल मंत्री नीतीश कुमार ने नैतिकता की दुहाई देकर मंत्री पद से इस्तीफा कर दिया था। उस वक़्त केंद्र में - एक ऐसी सरकार थी, जिसने विश्वास मत खो दिया था ।
और जिसके मुखिया राष्ट्रपति को इस्तीफा सौंप चुके थे । चुनाव संपन्न होने और नयी सरकार के गठन तक- जैसी परम्परा है - राष्ट्रपति ने वाजपेयी जी को सरकार में रहने को कहा था । ऐसी सरकार कामकाजी सरकार कही जाती है, और इससे इस्तीफा देने का कोई मतलब नहीं होता ।मुहावरे में इसे ऊँगली खुरच कर शहादत देना कहा जा सकता है। यह नौटंकी नीतीश कुमार ने की थी ।उस पर तुर्रा यह था की मैं पिछड़ी जाति का हूँ , इसलिए मेरे त्याग को नहीं समझा गया । वे अपनों के बीच फुनफुनाते थे कि मैं यदि ऊँची जाति का होता तो मुझ पर सम्पादकीय लिखे जाते । नीतीश कुमार ऐसी आत्ममुग्धता में अक्सर डूबे होते हैं । वे खुद परिक्षार्थी और खुद ही परीक्षक होते हैं । पिछले तीन साल से अपनी सरकार का रिपोर्ट कार्ड खुद जारी कर अपनी पीठ थपथपा रहे हैं ।
लेकिन अबकी इस बाढ़ अथवा जलप्लावन ने उनकी ऐसी की तैसी कर दी है ।
जाने अब उनकी नैतिकता इस्तीफा की सिफारिश कर रही है या नहीं । गाइसल में पटरी टूटी थी, किसी शरारत के कारण । अबकी तटबंध टुटा है, सरकार की ग़ैर ज़बावदेही के कारण । तब कुछ सौ लोग तबाह हुए थे, अबकी लाखों लोग तबाह हुए हैं । मै नहीं जनता नीतीश कुमार के मन में इस्तीफा की बात उठ रही है या नहीं । विपक्ष चाहेगा कि वो इस्तीफा कर दें ताकि उनके लिए मार्ग प्रशस्त हो जाए । ऐसी बाढ़ देख कर उनके हांथों में खुजली हो रही होगी । लेकीन इन पंक्तियों का लेखक ऐसा नहीं चाहेगा । नीतीश कुमार को ऐसी बातें मन से निकाल देनी चाहिए और राजधर्म का पालन करना चाहिए ।
लेकीन काश नीतीश कुमार राजधर्म का पालन करते । जिस मंसूबे से राज्य की जनता उन्हें सरकार में लायी थी - उसके मंसूबों पर पानी फेर रहे हैं नीतीश कुमार । उन्हें फुर्सत निकाल कर अपनी स्थिति का आकलन करना चाहिए।
यह बाढ़, जिसे नीतीश कुमार प्रलय कह रहे हैं की स्थिति क्या एक दिन में बनी है- अचानक बनी है ? नहीं! यह हादसा नहीं है । यह राज्य सरकार की नाक़ामियों का कुफल है। इसे मुख्यमंत्री स्वीकारें । नहीं स्वीकारेंगे तो उसका निराकरण भी नहीं कर पाएंगे ।
जरा देखिये कि तटबंध जब दरकनें ले रहा था तो नीतीश कुमार और उनके लोग क्या कर रहे थे । इनके दो प्रिये पालतू इस दरम्यान एक केन्द्रीय मंत्री की ज़मीन - जायदाद की नाप- जोख कर रहे थे । मुख्यमंत्री का पूरा सचिवालय उनके लिए मीडिया - मसाला तैयार करने में लगा था । पखवारे भर के उन भाषणों के क्लिप देखिये जिसे नीतीश कुमार धुंआधार दे रहे थे । वे लालू को जीरो पर आउट कर रहे थे । पुरे बिहार में उनकी ध्वजा फहरा रही थी । उनके चापलूस उन्हें प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठा रहे थे । पता नहीं क्या- क्या बना रहे थे । बाँध १८ तारीख को टूटता है । नीतीश कुमार की खुमारी २४ तारीख को टूटती है । चिल्लाते हैं - जा रे, यह तो प्रलय है । नीतीश कुमार ! देखा! चापलूसों ने आपको कहां पहुंचा दिया । छोड़िये प्रधानमंत्री की कुर्सी । मुख्यमंत्री की कुर्सी तो बचाइए । और छोड़िये मुख्यमंत्री- तंत्री की कुर्सी -अपने आत्मधिक्कार के दलदल से तो खुद को निकालिए । हजारों लोग बाढ़ से निकल कर सुरक्षित स्थानों पर आ रहे हैं । आप भी उस जानलेवा बाढ़ से निकलिए जिसमे गरदन तक डूब चुके हैं । आपके इर्द -गिर्द सांप - बिच्छुओं और लाशों का ढेर लग गया है । इनके बीच से निकलिये । केवल जनता को ही मत बचाइये- खुद भी बचिये । तरस आती है नीतीश कुमार आप पर । जिस अरमान से जनता आपको लायी थी, उसे अरमानों को चूर-चूर कर दिया । दुनिया भर के लंपट, चापलूस अपने इर्द- गिर्द जुटा लिये । कोई मुक़दमेबाज है तो कोई छुरेबाज, कोई जालसाज है तो कोई कोयला- किराना माफ़िया । ऐसे ही लोग आपके चरगट्टे के स्थायी सदस्य हैं । इनके साथ ही रोज आपका उठना-बैठना होता है । आपका मंत्रीपरिषद संदिग्ध आचरण वालों का जमावड़ा है । सबसे नालायक अधिकारियों को आपने अपने इर्द-गिर्द जमा कर रखा है । क्योंकि अफसर चुनने में जाति आपकी कसौटी होती है । नवम्बर आ रहा है और आप फिर रिपोर्ट कार्ड जारी कीजिएगा । आप से मेरा निवेदन होगा कि एक बार ईमानदार भाव से लालू के तीन साल से अपने इस तीन साल को तौलिये । एक नॉन सीरियस और जोकर नेता के रूप में बिहार के मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठा वह आदमी तीसरे साल में गरीबों-पिछड़ों का मसीहा बन गया था । उनका पतन तो तब शुरू हुआ जब दंभ उन पर हावी हो गया और अपने क़ाबिल साथियों को नज़रअंदाज कर वो चापलूस और लंपट तत्त्वों से घिरने लगे । लेकीन आपने तो मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठते ही राणा के प्रतिरूपों के हाथों अपने को सौंप दिया। और इसका नतीजा है कि एक नायक वाली आपकी छवि मुख्यमंत्री पद पाते वक़्त थी वह आज कुसहा बाँध की तरह ध्वस्त हो चुकी है । लेकीन इतने पर भी बिहार की जनता आप से नाउम्मीद नहीं हुई है । वह आपसे आज भी- अब भी उम्मीद करेगी की चपंडुकों के चरगट्टे से आप बाहर निकलेंगे और अपने ह्रदय पर हाथ रख कर अपनी ही धड़कनों को सुनेंगे। यदि ऐसा आपने किया तो विश्वास मानिये, हर धड़कन से यही स्वर उभरेगा -सुधरो नीतीश कुमार, सुधरो । खुदा के लिये सुधरो, बिहार के लिये सुधरो । (साभार ‘फ्री थिंकर्स’)


Tuesday, September 16, 2008

आस्था का महापर्व गया का पितृपक्ष मेला



सनातन धर्मावलिम्बियों और लोक आस्था का महान पर्व विश्व प्रसिद्ध पितृपक्ष मेला हर वर्ष की भांति विष्णुपद मंदिर के पास स्थित अंत: सलिला फल्गु नदी के तट पर प्रारम्भ हो गया है पितृपक्ष मेला आश्विन माह कृष्ण पक्ष प्रतिपदा दिन रविवार विक्रम सम्वत 2065 तदनुसार 14 सितम्वर से शुरु होकर 17 दिनों तक चलेगी। पितृपक्ष की अवधि में यहां 17 दिनों का जो मेला लगता है वह बड़ा अनूठा है। इस मेले में देश-विदेश के लाखों श्रद्धालु गयाजी आते हैं और अपने दिवंगत पूर्वजों की आत्मा की शांति के लिए पिण्डदान, तर्पण तथा श्राद्ध आदि का अनुष्ठान करते हैं।

धार्मिक मान्यता के अनुसार गयाजी मे श्राद्ध-कर्म करने पर पितरों की भटकती आत्मा को शांति मिलती है और उन्हें मोक्ष प्राप्त हो जाता है।

पौराणिक मान्यता है कि पितृपक्ष की अवधि में सभी भारतवासियों के पुर्वजों की अशरीरी आत्मा विष्णुनगरी गयाजी मे आकर वास करती है और आत्माएं अपने पुत्र-पौत्रों से पिण्डदान की आकांक्षा करती हैं।

पितृपक्ष वस्तुत: आत्मा का परमात्मा में एकीकरण तथा जीव और ब्रह्म के एकाकार स्वरुप का संगम पर्व है।

पिण्डदान मोक्ष प्राप्ति का एक सहज और सरल मार्ग है और इस कर्म के लिए गया धाम को सर्वाधिक महत्वपूर्ण तीर्थ माना जाता है। सृष्टि के रचयिता ब्रह्माजी की ज़मीन से शुरु हुआ यह श्राद्ध-कर्म यहां इस घोर कलयुग मे भी निर्बाध गति से जारी है ।

शास्त्रों के अनुसार जन्म लेने के बाद मनुष्य के सिर पर तीन तरह का ॠण रहता है - देव ॠण, गुरु ॠण एवं पितृ ॠण। आत्म चिन्तन, लेखन, प्रवचन तथा गुरु सेवा से व्यक्ति को गुरु ॠण से छुटकारा मिल जाता है। इसी प्रकार श्राद्ध, तर्पण और पिण्डदान से व्यक्ति पितृ ॠण से मुक्त होता है। इन तीनो प्रकार के ॠणों में पितृ ॠण मुख्य है। कहा जाता है कि पितर जितने तृप्त होंगे पारिवारिक विकास उतना ही अधिक होगा। अत: पितरो को तृप्त करने के लिए उनका श्राद्ध कर्म करना आवश्यक है। यह भी कहा जाता है कि पिण्डदान करने से एक सौ आठ कुल और सात पीढ़ीयों का उद्धार होता है और कर्ता को अश्वमेघ यज्ञ करने जैसा फल मिलता है।

पितृपक्ष के दिनो में गया धाम धार्मिक भावना से ओत-प्रोत रहता है। हरेक के मन में एक ही भाव रहता है कि वे अपने पूर्वजो की शांति और मोक्ष के लिए इन दिनो में यथा सम्भव समयानुसार श्राद्ध एवं अनुष्ठान सफलतापुर्वक सम्पन्न कर ले ताकि उनके परिवार को पूर्वजो का आशिर्वाद मिले, उनका परिवार फले-फुले तथा सुख-शान्ति रहे। गयाजी आने वाले धर्मावलंबी पूरी आस्था और निष्ठा के साथ इस पुण्य कार्य को सम्पादित करते हैं।

वैसे तो किसी न किसी रुप से सभी जाति एवं धर्म के लोग अपने पूर्वजों के प्रति श्रद्धा भाव रखते हैं परन्तु हिन्दू धर्म में पूर्वजों के प्रति जो सम्मान और श्रद्धा का भाव है वो अन्यत्र कहीं नहीं दिखता है। इस परम्परा का निर्वाह सदियों से सनातन हिन्दू धर्म के लोग करते आ रहे हैं। धर्म ग्रन्थों मे भी इस मेले की महत्ता वर्णित है। स्वयं मर्यादा पुरुषोत्तम राम यहां आकर अपने पितरों के मोक्ष हेतू पिण्ड दान किये थे। सर्व-धर्म- समभाव पर आधारित सनातन धर्म में न केवल अपने पितरों के मोक्ष की कामना करते हैं बल्कि इस ब्रह्माण्ड के उन सभी बन्धु-बान्धव, देवर्षी, कीट-पतंग, वृक्ष एवं सभी प्राणियों को भी जल देकर पिण्डदान करते हुए मोक्ष की कामना करते हैं। गयासुर राक्षस के मस्तक पर भगवान विष्णु ने अपना चरण रखकर उसे मोक्ष प्रदान किया था। उसी चरण के दर्शन कर श्रद्धालु पिण्डदान के पश्चात विष्णुपद मंदिर आकर अपने लिये भी मोक्ष की कामना करते हैं।

Monday, September 15, 2008

Excuse me! Can I smile?


Every time I see that glittering piece of jewel on one of the showcases of a nearby jeweler shop, I ask myself: Will I possess this one day? The answer is shut up you fool! Just get back to some hard work. That is not what you are meant for. You are meant to be cheated when you trust the most. You are supposed to cry, when you are very happy, and you need not wish for something as God is busy listening to ‘their’ prayers. Now don’t ponder too much, as you, my dear reader, are also a middle class man, and thinking too much will ruin your already torn up brain. I say that because the ‘their’ are those, economists call as ‘haves’ and we are undoubtedly the ‘have-nots’.
There is a gatekeeper for my society and he bought a bicycle after saving 2 grand’s over a period of three years from his miniscule non-existing and negligible take home. The irony of destiny is that the day he got it home, the very night it got stolen, by the other category of even the worst case of ‘have-nots’; Am I appealing for the offenders, Yes, because they have got the message of ‘snatch and survive’ from our very own leaders of rich principles.
In their Z security and bulletproof vehicles, they reach home safe everyday. What about you and me? Will the common man of R.K Laxman get back home safe? Everyday we leave home - we have fear in our eyes and worry in our minds. With this dilapidated condition of brain, we start our work for the day. We take a deep sigh of relief and thank God, when we reach back home safely. I am not asking for a Z security, but just security of our dreams, our existence and our identities.
Nowhere am I listened to. They treat me as a destitute. I am fighting for my identity ever since I was born. No one has rendered help yet. I am still being blown up in the air, with bombs under my pillow. In pieces, I am scattered everywhere. My blood has already enriched the soil. My family is crying outside the hospitals. Oh! Yes it will be mean of me, if I don’t thank those who have extended help. My leaders have announced generously a paltry sum to my family, but what about me; I am lost for ever, have I died? No, I am there in each one of you, still waiting for justice, hunting for my identity, stealing my bread and asking them, Excuse me! Can I smile?
- Annu

Saturday, September 13, 2008

I Remember, we were free

I remember we were free
In the days that have flee
In those times we could fly
Without a stop under the sky
We wrote our destiny.
But today where are we?
Remember our history!
The rhymes of lost glory



Our people sleeping hungry
Suffering in utter misery
Our children cry
And our saviors lie
They will never believe, till we die
They have ruined our country
So will you be the one to begin the mutiny?
And become the sentry
Of your own destiny


Come my people join the war
Fight your minds and stand at par
With the world of divided history
Give back to me my ‘Bihar’



By Annu