Tuesday, May 26, 2009

भटकती आत्मा पत्रकारिता की

भारतीय पत्रकारिता के लिये बिल्कुल एक ऐसा वक़्त आ गया लगता है जब इसके चाल और चरित्र को लेकर गहरे अन्वेषण की दरकार है। हालांकि वे पत्रकार और उनके मालिक जिनके व्यवसायिक सरोकार पत्रकारिता के मूलभूत सरोकारों से बड़े और जरुरी बन गये हैं उनसे ऐसे किसी भी अन्वेषण की उम्मीद करना बेमानी है। क्योंकि अब गाहे बगाहे नहीं बल्कि रोजाना पत्रकारों की करतूतें इस पेशे से जुड़े अन्य लोगों को शर्मिन्दा करवा रही हैं। दरअसल एक लिहाज से देखें तो नेता और पत्रकार के बीच अब कोई फ़र्क नहीं रहा। कई मामले तो ऐसे हैं जिनमें इनके गठजोड़ बड़े गहरे हैं। पहले बयान या बाइट के बहाने दोस्ती गंठती है और अगर मन-मिजाज एक रहा तो जम कर निभने लगती है। निभती कहां तक है कहने की जरुरत नहीं हैं। शुरुआत मालिक के लिये विज्ञापन से होती है और फलती-फूलती है तरह-तरह के कान्टृक्ट पर। पहले तो ये सब चोरी छिपे ही होता था लेकिन जब से मालिकों ने संकेत दे दिये हैं कि महीने के अंत में तनख्वाह चाहिये तो विज्ञापन बटोर कर ले आओ तब से इस ग़ठजोड़ को एक किस्म की क़ानूनी मुहर मिल गयी है। और विज्ञापन भी क्या? प्रायोजित कहानियां। यानी अब खुला खेल फ़र्रुखाबादी है। वैसे पत्रकारों की तो बल्ले-बल्ले है जिनके मीडिया में आने का मक़सद ही यही रहा है। दिलचस्प बात ये है कि इनकी पूछ भी अपने संस्थानों में खूब है।

लेकिन इसके लिये सीधे तौर पर दोषी एक अदना सा और मालिक की ठकुर सुहाती सहने वाला पत्रकार नहीं हो सकता। पत्रकारिता में निरंतर आ रही इस गिरावट के जिम्मेवार और एक लिहाज से अपराधी मीडिया संस्थानों के मालिक ही हैं। या फिर वो ‘वरीय पत्रकार’ जो मालिकों के नजदीक रह कर अपनी नौकरी सलामत रखने के लिये तमाम क़िस्म के हथकंडों में शामिल रहते हैं।

इसे समझना कठिन नहीं है। बहुत ही आसान है। मीडिया ने इंडस्ट्रीज़ का एक रुप धारण कर लिया है और ऐसे में लाभ कमाने से बड़ा कोई उद्देश्य नहीं रह गया है। कहना ग़लत नहीं है कि ये उद्देश्य ही वर्तमान पत्रकारिता का एकमात्र आदर्श है।

मसलन मंदी के बहाने कितने ही ‘बेज़ुबान’ पत्रकारों की बलि चढ़ गयी। छंटनी के पीछे वजह महज संस्थान को चलाये रखने की जुगत नहीं थी। बल्कि मीडिया के मठाधीशों को अपने लाभ में एक पाई की कटौती होते देखना गवारा नहीं था। इसके लिये भले ही उन्होनें कई कर्मठ और ईमानदार पत्रकारों के घर में बेरोजगारी का अंधेरा पसरवा दिया। कुछ मीडिया हाउस के कर्ता धर्ता जो संपादक के तौर पर समकालीन पत्रकारिता में उँची रसूख रखते हैं उन्होने तो हर तरह के व्यवसायिक समझौते कर अपने अख़बारों के कलेवर में बदलाव ही कर डाला। इनके अख़बारों पर पहले जहां सरोकार की ख़बरें हुआ करती थीं वहां अब विज्ञापन की छोटी-बड़ी कतरनें सजी रहती हैं। संभव है अख़बार चलाने के लिये ये सब जरुरी रहे हों लेकिन तब इससे होने वाले मुनाफ़े का एक हिस्सा रट-मर कर काम करने वाले रिपोर्टर को भी मिलनी चाहिए।

जब कोई आदर्श स्थिति ना हो और पत्रकारिता भी करनी हो तब हमारे सामने कई प्रकार के गठजोड़ बनते दिखेंगे। और असल पत्रकारिता भटकती आत्मा के सिवा कुछ ना होगा।


अमिताभ हिमवान

Saturday, May 9, 2009

क़िस्मत के सांढ़ उर्फ़ देवेगौड़ा उर्फ़ नीतीश कुमार

क़िस्मत के सांढ़। कभी लालू यादव थे आज नीतीश हैं। मुख्यमंत्री तो हैं ही, नीतीश में अब कईयों को प्रधानमंत्री वाला सिंघ भी दिखाई पड़ने लगा है। विशेष तौर पर वामपंथियों को जो अब तक लाल चश्मे से नीतीश को साम्प्रदायिकता को संपोषित करने वाला शख़्स बताया करते थे। नीतीश इनके साथ सबके चहेते राहुल को भी लगता है कि नीतीश बड़ाई के पात्र हैं। माता जी तो पहले ही कुछ मामलों में अपनी शब्द उदारता प्रदर्शित कर चुकी हैं। बेटा जी को भी लगता है कि वोटरों ने आईना दिखा दिया तो बी जे पी की बल्ले बल्ले हो जाएगी। इसलिये बेह्तर है कि नीतीश को थोड़ा पहले ही से टाप के रखा जाये।

वैसे ये क्या गज़ब हो रहा है कि नीतीश के क़द को पटना से खींच कर दिल्ली तक कर दिया गया है? पटना में बैठे नीतीश को पटियाने के लिये तमाम लोग राजनीति के चाणक्य बनने को आतुर हैं।

जाने के बा? त तनी दिमगवा पर जोर डालिये और याद कीजिए 1996 का संयुक्त मोर्चा नामक बेदिली से बने दलों के एक समूह को। कांग्रेस को बाहर रखना था, बी जे पी सरकार बनाने में विफल रही थी और ऐसे मौक़े पर देश एक अदद प्रधानमंत्री को तरसता दिख रहा था। इधर –उधर नज़र घूमाते हुए सबकी निगाहें देवेगौड़ा पर टिक गयी थीं। और चाहे अनचाहे या जीभ लपलपाते देवेगौड़ा देश के दक्खन प्रांत से आने वाले पहले प्रधानमंत्री बन गये थे। ये ग्याहरवीं लोक सभा थी। कांग्रेस के पास 136 सीटें थीं, जबकि बी जे पी के खाते में 160। और ऐसे अचकचा देने वाले हालात में देवेगौड़ा को पी एम बनाने में राष्ट्रीय मोर्चे के साथ इसी वाम मोर्चे ने किंग मेकर की भूमिका अदा की थी।

ध्यान से सोंचेंगे तो पंद्रहवीं लोक सभा के गठन के ठीक पहले की पैंतरेबाजी में नीतीश सबके अपने अपने देवेगौड़ा बनते दिख रहे हैं। सबने चुनाव लड़ा है और सरकार बनाने के मौक़े की तलाश में जुगत भिड़ा रहे हैं। लेकिन देश में गठबंधन का फच्चर फंसा हुआ इसलिये एक फेस भी चाहिये। फिलहाल नीतीश से बेहतर पालिश्ड फेस किसका हो सकता है?

ऐसे सुअवसर पर राजनीति के साथ-साथ कुछ गणित का भी ज्ञान हो तो इस समीकरण पर ग़ौर फ़रमाएं -

वाम मोर्चा + क्षेत्रिय दल + देवेगौड़ा – बी जे पी – कांग्रेस = नीतीश कुमार

लेकिन नीतीश इतने ‘वो’ तो हैं नहीं कि आसानी वैसे बन जाएंगे जैसा कि लोग चाहते हैं। प्रधानमंत्री बनने की ललक तो दिखती है मगर सौफिस्टिकेटेड हैं इसलिये पूछे जाने पर सकुचाते हुए प्यार से नकार जाते हैं। वैसे लाल गुरुघंटालों ने जब इतना फ़ेवर कर दिया है तब नीतीश ने भी उनके बाबत अपने सुर-ताल दुरुस्त कर लिये हैं। भले ही मामला न्यूक्लियर डील का हो।

इसलिये नु कहते हैं कि ए नीतीश जी जरा पिछ्वाड़े जा कर बगलगीरो को धन्यवदवा देते आइएगा। काहे से कि न तो उ मैडम के कुनबा से बिगाड़ लेते और न आपके माथे पर ताज सजावे के तैयारी करता सब लोग।

वैसे एगो आकलन ई भी है कि 2009 में 1996 की अपेक्षा हालात बदले हुए हैं। नीतीश मुख्यमंत्री हैं, बड़ी मुश्किल से बड़का भइया को सूबे से बाहर करने में सफ़ल हुए हैं। जानते है कि बड़का कुर्सी में ज्यादा दिलचस्पी दिखाई तो हाल कहीं ये ना हो जाए कि न तो ख़ुदा मिला न ही विसाले सनम। यानी देवेगौड़ा बन के प्रधानमंत्री बन गये तो देवेगौड़ा वाला ही हाल ना हो जाए। इस लाल सलाम का कोई भरोसा नहीं है। आज सलामी ठोंकी कल ही छौ अंगुर छापने पर लग जाएंगे। याद ही होगा कि देवेगौड़ा 1996 में नौ महीने तक ही टिक पाए थे।

लगे हाथ इस पर भी चर्चा कर लेते हैं कि अगर नीतीश हस्तिनापुर की राजगद्दी पाने की लालसा में या भरोसे में बोरिया बिस्तर समेट लेते हैं तो मगध में ही महाभारत शुरु हो जाएगा। अपनी पार्टी में तो कोई दिखता नहीं है और बी जे पी को टा टा बाय बाय बोला तो दुस्सर दिगदारी शुरु हो जाएगा। 16 महीना बाद बड़का भईया के चांस खुल जाएगा। बी जे पी का समर्थन मिल भी जाता है तो मोदी हड़बड़ाते हुए गद्दी सरिया के संभाल पाएंगे कि नहीं ई भी सोंच के कै गो के माथा दुखाए लगता है।


लेकिन सवाल ये भी है कि लालू जी आजकल हैं कहां? वो भी रहे हैं क़िस्मत के सांढ़ । जब थे तब उनके एक इशारे पर जिन्न निकल आते थे और विरोधी दुम दबा के पतली गली से निकल पड़ते थे। लालू को लगता था, आज नहीं तो कल देश के मुखिया बनिये जाएंगे। तब लालू किस्मत के सांढ़ो थे, साथे-साथे हाथियो थे। सबको बुड़बक बूझ के हड़काते रहते थे। चाहे मुंह बाए खड़े पत्रकार हों या फिर टुकुर-टुकुर ताकने वाले लोग बेचारे। जब लालू चुप सब चुप, जब लालू हंसे सब हंसे। लालू के यहां सबों की क़ीमत सब धान बाइस पसेरी समान थी। 20 साल तक चलता रहा। समय बदल रहा है। लालू के बारे में राय बदल रही है। पता नहीं ये सब देख कर लालू की राय बदल रही है या नहीं। ज्यादा नहीं तो कुछ जायजा 16 मई के बाद मिल जाएगा। लेकिन लालू के एक्के बार में कौन राईट आफ़ कर सकता है? ब्रह्मा जानते होंगे। मिलेंगे तो जरुरे से पूछेंगे।

Post Script: तो बिहार की चांदी होती दिख रही है। यहां दो-दो क़िस्मत के सांढ़ अब हो गये हैं। कौन बनेगा प्रधानमंत्री? हमनियो के दावा है। ठोके में का जाता है।

अमिताभ हिमवान

मुद्दे प्रतीक होते हैं बर्गालने के लिये

2004 आम चुनावों कुछ दिनों पहले शरद यादव के एक दौरे को कवर करने के लिये मधेपुरा पहुंचा था। शाम का वक्त था शरद चार्टड हेलिकॉप्टर से उतर कर सर्किट हाउस में आराम फरमाने पहुंचे। मेरी पत्रकारिता की अभी अनौपचारिक शुरुआत भर हुई थी। पूरी हिम्मत से मैनें शरद यादव के सामने कुछ सवाल रखे। सवाल मुरहो गांव से जुड़ा था। मुरहो वही गांव है जहां मंडल कमीशन के प्रणेता यानी अध्यक्ष बी पी मंडल का जन्म हुआ था। और शरद पुराने जनता दल के उन खुर्राट नेताओं में से आते हैं जिन्होंने नब्बे के दशक में बी पी मंडल के नाम को जम कर भुनाते हुए केन्द्र में राष्ट्रीय मोर्चा की सरकार बनवाई थी। खैर, सवाल ये था कि मंडल जी का गांव आदर्श ग्राम घोषित होने के बावजूद तमाम ज़रुरी सुविधाओं से क्यूं वंचित है। शरद तब मधेपुरा से सांसद थे। मैने पूछा कम से कम इस पिछड़े इलाक़े का गांव होने के नाते ही बता दें कि आपके स्तर से क्या कुछ हो रहा है या फिर आप कुछ करते क्यूं नहीं है। शरद तो एक दम से भड़क गये। पहले तो कैमरा बंद करवाया और कहा – तुम पत्रकार नहीं बेकार हो। मैं सांसद केवल एक गांव के लिये नहीं हूं। मेरी बड़ी- बड़ी जिम्मेवारियां हैं। मैं पुल बनवाता हूं। उद्धोग धंधे लगवाता हूं। ये पूछो जाकर राज्य सरकार से।

मैं थोड़ी देर के लिये ठगा सा रह गया। सोंचा कि क्या वाकई इलाक़े के सांसद से उसी के संसदीय क्षेत्र के किसी गांव की बदहाली पर सवाल नहीं किये जाते। फिर सोंचा कि दिल्ली में बैठते हैं जहां संसद है। पांचेक साल में आते हैं गांव भला कितना देख पाते होंगे। मैने भी बेतुका सा सवाल कर दिया। मुरहो आदर्श ग्राम है तो है, वोट केवल वहीं से थोड़े ही मिला होगा। सांसद हैं उपर से बड़ी- बड़ी चीजें देखने में व्यस्त रहते होंगे।

शरद से सवाल का जवाब तब मांगा था जब मुरहो के लोगों ने अपनी शिकायत में उन पर भी कुछ ना करने के आरोप लगाये थे। आस पास के लोगों के मुताबिक मुरहो परम्परागत तौर पर राजद का वोट बैंक था और उस समय राबड़ी की सरकार थी।

पत्रकारिता में अपने पदार्पण के दौरान इस ‘मूर्खतापूर्ण’ दुस्साहस का जिक्र मैने इसलिये किया कि मुझे लगा था कि जनता जब वोट देती है – चाहे विधायक बनाने के लिये दे या फिर सांसद के लिये – तब उसके मन में मुद्दे महत्ता के लिहाज से अपनी जगह बनाते हैं। पहले वो खुद एक मुद्दा होता है, उसके बाद परिवार, फिर गांव/ क्षेत्र, राज्य और देश की बारी आती है। पहले तीन के तो तय हैं कि वो इसी क्रम में आते हैं। यानी वोट देते वक्त वोटर विधान सभा और संसद नहीं देखता बल्कि अपने कन्सर्न देखता है। हर वोटर का अपना लोकल कन्सर्न होता है वो नहीं जानता- समझता कि इसकी सुनवाई विधायक करेगा या फिर सांसद।


लेकिन अब इतने सालों में इतना तो जरुर समझ गया हूं कि मुद्दा महज एक प्रतीक होता है। इसका कोई ठोस आकार नहीं होता है। ठोस से मतलब भुखमरी, बेरोज़गारी, बिजली, सड़क और पानी जैसी वाजिब और बेहद ज़रुरी चीजें। ये प्रतीक के तौर पर पांच साल में एक बार पोस्टर, बैनर और भाषणबाजी में शुमार हो जाता है। जाहिर है बर्गलाने के लिये।


अमिताभ हिमवान