Friday, October 24, 2008

इस आग की चपेट में है उनके घोंसले भी

आग सुलगाना आसान है। सुलगा कर बुझाना कितना मुश्किल ये सब जानते हैं। ये आग अंतस के उस विस्फोट का है जिसमें राज ठाकरे और उसके गुर्गों ने महज पिन निकालने का काम किया है। उसने अपने मौक़े के लिहाज से चोट की क्योंकि उसने उस शातिर बुज़ुर्ग गुरु से यही सीखा है कि कार्टून के स्केच की तरह ज़िन्दगियों के भी शक्ल ओ सूरत बड़ी आसानी से बिगाड़े जा सकते हैं, बशर्ते पहचान में आने के बाद कहा जा सके कि हम तो आईना दिखाते हैं। आईना ही तो दिखाया है इस बदमिजाज़ ने। एक ऐसा आईना जिसमें साफ दिखता है कि कड़कड़ाती हड्डियों में कई रंग के घोंसले चंद लोगों ने बना रखे हैं। लाल, हरा, नीला और भगवा घोंसला जिसमें अपने- अपने मिले वक़्त में तब तक आराम फरमाते हैं जब तक की जंगल में लगी आग की लपट की गर्मी मह्सूस ना होने लगे। नहीं तो ऐसा क्यूं कर होता कि हम वहां पीटे जा रहे थे और इंतजार इस बात का हो रहा था कि घर आओ तब जरा कुछ ईलाज-विलाज भी कर देंगे। लेकिन हुआ दरअसल कुछ उल्टा। घोंसले बचाने वालों को ही लौट कर आईना दिखा दिया गया। ये कितना सही हुआ या फिर हो रहा है बहस का मुद्दा है। लेकिन बेशर्मी इतनी है कि इस आईने में भी उन्हें अपनी असल शक्ल नहीं दिख रही है। सच में सत्ता की सुर्खी गाल के मांस को इतना बढ़ा देती है कि आंख ही ढक जाती है। अब जब आधा जल चुका है और कितने अरमान घाट के किनारे खाक में मिल चुके हैं तब ये तमाम रंग के घोंसलों के रहनुमा मिलकर – चोंच में चोंच लड़ा कर- कह रहे हैं कि शांत हो जाओ, अब मत भड़को, नहीं तो हमसे संभल नहीं पाओगे। क्या मिल पायेगा तुम्हें इस आग में जल कर। खुद को तिरोहित मत करो हम हैं ना तुम्हारे लिये। वैसे ये एक सच है कि घर को आग में झोंक कर कुछ नहीं मिलने वाला। उनसे भी नहीं जिनकी खातिर और जिस अस्मिता के लिये हंगामा बरपा कर अपमान का बदला लेने की जद्दोजहद हो रही है। मगर खूंटे की बात तो यही है कि जो संभल जाने की तक़्ररीर दे रहे हैं वो कब के संभले हुए हैं। अगर वाक़ई संभले हुए होते ये नौबत यहां तक आने देते। सपने दिखा कर सपने लील नहीं गये होते तो क्या हालात यहां तक पहुंचते। कहा ना चोट उन कड़कड़ाती हड्डियों पर हुई है जहां इन्होनें क़ब्ज़ा जमा रखा है। बिफ़र रहे हैं, बिलबिला रहें कहीं ये आग उनके घोंसलों तक ना पहुंच जायें। वैसे आग के पहुंचने की गुंजाईश तो पूरी बन ही चुकी है इसलिये मिल कर मिन्नतें कर रहे हैं। जानते हैं सुलग चुकी इस आग को बुझाना बूते से बाहर हो गया तो ताल ठोंक कर राज करने के ख्वाब झुलस जाएंगे।

अमिताभ हिमवान

1 comment:

Anonymous said...

आपका ब्लॉग पढने के बाद मुझे उस शायर कि याद आ गयी जिसने कभी कहा था - ये लोग पैर नही जेहन से अपाहिज हैं, उधर चलेंगे जिधर रहनुमा चलायेगा. पता नही बिहार के लोग कब इस बात को समझेंगे कि जब तक अपनी किस्मत को बदलने के लिये वे ख़ुद अपनी कमर नही कस लेंगे तब तक लाश पर भी सियासत करने वाले उनके रहनुमा उन्हें अपने इशारो पर इसी तरह नचाते रहेंगे. अब वह वक्त आ गया है जब बिहार के लोग खासकर यहा के युवा रक्कासे की तरह नाचना बंद कर परिवर्तन और विकास की मशाल ख़ुद अपने हाथो में ले लें. शायद इस से राहुल राज कि आत्मा को भी शांति मिलेगी और उसे इस बात का सुकुन भी मिलेगा कि मर कर ही सही उसने बिहार के युवाओं को उनकी असली ताकत का एह्सास करवा दिया है.