Saturday, October 31, 2009
Friday, October 30, 2009
Ashoka pillar
The most celebrated pillar is the pillar with the lion capital at Sarnath. Here, four lions are seated back to back. The pillar at Sanchi also has a similar lion capital. There are two pillars at Rampurva, one with bull and the other with lion as crowning animal. The pillar at Sankissa has an elephant as crowning animal. Five of the pillars of Ashoka (two at Rampurva, one each at Vaishali, Lauriya-Areraj and Lauryia-Nandangarh were possibly marked the course of the ancient Royal highway from Patliputra to the Nepal valley.
There exists in Vaishali, a pillar with a single lion capital erected by Ashoka. The location of this pillar is contiguous to the site where a Buddhist monastery and a sacred coronation tank stood. Excavations are still underway and several stupas suggesting a far flung campus for the monastery have been discovered. This pillar is different from the earlier Ashokan pillars because it has only one lion capital. The lion faces north, the direction Buddha took on his last voyage.Identification of the site for excavation in 1969 was aided by the fact that this pillar still jutted out of the soil. More such pillars exist in this greater area but they are all devoid of the capital.
Thursday, October 29, 2009
Wednesday, October 28, 2009
Bihar Information Technology Minister Dr. Anil Kumar
Monday, October 26, 2009
सामंतों के आगे घुटने टेके नीतीश सरकार ने
आखिरकार बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने द्विज सामंतों के सामने आत्मसमर्पण कर दिया। उन्होंने देवव्रत मुखोपाध्याय की अध्यक्षता वाले भूमि सुधार आयोग की सिफारिशों को लागू करने से साफ मना कर दिया है। आयोग ने बिहार में भूमि संबंधों में व्यापक परिवर्तन की वकालत करते हुए नया बटाईदारी कानून लाने की सलाह दी थी। इस कानून के बनने से बिहार में सामंतों और वंचितों की सामाजिक-आर्थिक हैसियत में परिवर्तन आता और जातीय नरसंहारों के सिलसिले का भी स्थायी समाधान हो जाता।
आयोग की रिपोर्ट को लंबे समय तक दबाये रखा गया। बाद में कुछ विधानसभा सीटों के उपचुनाव के ऐन पहले विधानमंडल के पटल पर रख कर इसके कुछ अंशों को लागू करने की घोषणा की गयी। नीतीश कुमार की इस घोषणा के साथ ही बिहार के जमींदारों ने आंखें तरेरनी शुरू कर दीं। उनके दबाव में नीतीश कुमार ने रिपोर्ट के अध्ययन के लिए एक प्रशासनिक अधिकारी की अध्यक्षता में कमेटी के गठन की घोषणा की, जिसका काम आयोग की सिफारिशों पर पानी फेरना था। लेकिन बिहार के द्विज जमींदारों को, जिनसे नीतीश कुमार घिरे हैं, भूमि संबंधों में परिवर्तन की बात सुनना भी गवारा नहीं।
वास्तव में, नीतीश कुमार की राजनीति का रंग-ढंग जानने वालों को उस समय भी आश्चर्य हुआ था, जब उन्होंने भूमि सुधार आयोग की सिफारिशों को लागू करने घोषणा की थी। नीतीश योग्य लोगों से सलाह-मशविरा पसंद करते हैं लेकिन साहसिक फैसला ले सकने का इतिहास उनका नहीं रहा है। निर्णायक मौकों पर उन्हें सामंतों और विभिन्न प्रकार के धंधेबाजों की अपनी स्थायी टोली की ही बात माननी पड़ती है।
उनके कार्यकाल में गठित मुचकुंद दुबे की अध्यक्षता वाले ‘समान स्कूल प्रणाली आयोग’ की सिफारिशों का हश्र हम देख चुके हैं। किसान आयोग की साहसिक सलाह भी कचरे के डब्बे में फेंकी जा चुकी है। कुछ बड़े परिवर्तन का सुझाव देने वाले अति पिछड़ा वर्ग आयोग को सरकार ने अपनी रिपोर्ट बदल देने के लिए कहा है। इन आयोगों का गठन बहुत धूमधाम से किया गया था और देश के कुछ प्रमुख बौद्घिकों को इनसे जोड़ कर उन्होंने खासी प्रशंसा बटोरी थी। लेकिन अपने-अपने क्षेत्रों में दक्षता रखने वाले इन विशिष्ट लोगों की सलाह मानने का साहस उन्होंने नहीं दिखाया। इसके विपरीत महादलितों की बाबत बिठाये गये आयोग ने जब-जब जिस जाति को महादलित श्रेणी में शामिल करने की सलाह दी, तो उसे तत्काल स्वीकार किया गया। इस आयोग की इन सिफारिशों में सामाजिक-आर्थिक परिवर्तन की संभावना शामिल नहीं थी और दलितों का विभाजन रणवीर सेना और भूमि सेना के सेनापतियों के अनुकूल था। दूसरी ओर रणवीर सेना के राजनीतिक संबंधों की जांच करने वाले अमीर दास आयोग की कोई जरूरत नहीं समझी गयी। उसे बिना रिपोर्ट मांगे ही भंग कर दिया गया।
भूमि सुधार आयोग की रिपोर्ट को सिरे से खारिज कर देना भी इसी की एक कड़ी है। साफ तौर पर कहा जाए तो एक कदम आगे बढ़कर दो कदम पीछे जाने की इस राजनीतिक कवायद से नीतीश कुमार का ढुलमुलपन पूरी तरह उजागर हो गया है। 19 अक्तूबर को उन्होंने साफ कहा कि आयोग की सिफारिशें लागू नहीं की जाएंगी।
बिहार में बड़ी जोतों के मालिक द्विजों के अलावा दबंग पिछड़ी जातियां यादव और अवधिया कुर्मी में भी हैं। लेकिन नीतीश कुमार ने यह बयान द्विज जातियों के दबाव में दिया है। वस्तुत: उनकी पिछड़ा राजनीति शुरू से ही द्विज वर्चस्व का शिकार रही है। इसी कारण वे महिलाओं को आरक्षण देने के अलावा कोई परिवर्तनकारी कदम नहीं उठा सके। उन्होंने उन सभी अवसरों को गंवा दिया, जिसके लिए बिहार के वंचित तबकों ने उन्हें सत्ता सौंपी थी। समानता के आग्रही लोगों के लिए चिंता का विषय यह है कि बिहार के दो अन्य राजनेता लालू प्रसाद और रामविलास पासवान भी इस मामले में ज़मींदारों के पक्ष में खड़े रहे हैं।
नीतीश कुमार के इस फ़ैसले को बेहतरीन रणनीति बताने वालों की भी कमी नहीं है। ऐसे लोगों का मानना है कि अगर नीतीश द्विजों की नाराज़गी मोल लेते हैं, तो अगले साल विधानसभा चुनावों में सत्ता में नहीं लौटेंगे। पिछले दिनों हुए उपचुनावों में नीतीश कुमार को हार का सामना करना पड़ा था। उनकी इस हार को भी भूमि सुधार आयोग का परिणाम बताया गया था। प्रचारित किया गया कि आयोग की रिपोर्ट लागू करने की घोषणा से द्विज जातियां नाराज हो गयी हैं और केवल उनका वोट नहीं मिलने से नीतीश कुमार हार गये हैं। जबकि उपचुनावों में उनकी हार का एक का बड़ा कारण दलितों, जिनकी आबादी बिहार में चौदह फीसद से ज्यादा है, का छिटकना भी था। द्विज वोटों के अलावा पिछड़े मुसलमानों के वोटों का एक बड़ा हिस्सा भी कांग्रेस ने नीतीश कुमार से छीन लिया है।
किसी सरकार का प्राथमिक कार्य ‘न्याय’ करना होता है। सामाजिक और आर्थिक दोनों तरह का न्याय और नौकरशाही के सामने उसके अनुरूप दृष्टिकोण को रखना उसके मुख्य काम हैं। विकास और सुशासन जैसे प्रशासनिक काम नौकरशाही के होते हैं। विधायिका को केवल उसकी अच्छी तरह निगरानी करनी चाहिए। नीतीश कुमार पिछले चार साल के कार्यकाल में अपना प्राथमिक कर्तव्य निभाने में न केवल कोताही बरतते रहे हैं बल्कि उनके कई फैसलों से बिहार के वंचित तबकों के साथ अन्याय हुआ है।
उदाहरण के तौर पर उस महादलितों की बाबत बने आयोग की सिफारिशों को भी देखा जा सकता है, जिन्हें न केवल नीतीश कुमार के संकेत पर तैयार किया जाता रहा बल्कि सरकार उन्हें तत्काल लागू भी करती गयी। आयोग की सिफारिशों पर सरकार ने अपेक्षाकृत अधिक शिक्षित और संपन्न धोबी और पासी जाति को भी महादलित की श्रेणी में डाल दिया, जबकि कम शिक्षा वाले रविदास और दुसाध जाति को महादलित की श्रेणी से बाहर रखा क्योंकि ये दोनों जातियां क्रमश: मायावती और रामविलास पासवान का वोट बैंक मानी जाती हैं।
नीतीश कुमार खुद को कर्पूरी ठाकुर की परंपरा का कहते हैं। कर्पूरी ठाकुर ने 1977 में बिहार में पिछड़े वर्गों के लिए शिक्षा और सरकारी नौकरियों में आरक्षण लागू किया था। बाद में उसी की प्रेरणा से राष्ट्रीय स्तर पर मंडल आयोग का गठन हुआ, जिसकी सिफारिशों के सरकारी नौकरियों में आरक्षण वाले हिस्से को वीपी सिंह ने लागू किया। कर्पूरी को अपने इस साहसिक फैसले के कारण मुख्यमंत्री पद छोड़ना पड़ा था। वीपी सिंह का गद्दी गंवाना भी इतिहास के पन्नों में दर्ज है। क्या हम नीतीश कुमार की तुलना इन नेताओं से कर सकते हैं? लोकतंत्र में सत्ता का अस्थायित्व तो बना ही रहेगा। लेकिन यह याद रखना चाहिए कि इतिहास के पन्नों में न्याय करने और अन्याय के पक्ष में खड़े होने वाले सत्ताधीशों की जगह अलग-अलग होती है। (जनसत्ता, 22 अक्टूबर 2009 से साभार)
Saturday, October 24, 2009
Friday, October 23, 2009
Thursday, October 22, 2009
लोक आस्था का महापर्व छठ
सूर्य उपासना की परम्परा वैदिक काल से ही रही है। इस पर्व के पीछे कई कथाएं प्रचलित हैं कहा जाता है कि लंका विजय के बाद भगवान राम और सीता ने सूर्य षष्ठी के दिन पुत्र प्राप्ति के लिये सूर्य उपासना की थी। ऐसा भी माना जाता है कि सूर्य पुत्र कर्ण ने भी सूर्य की आराधना की थी। महाभारत में सूर्य पूजा का एक और वर्णन मिलता है जब द्रौपदी ने अपने परिजनों के उत्तम स्वास्थ्य और लंबी उम्र के लिये सूर्य उपासना की थी। एक प्रसंग यह भी है कि इसी दिन विश्वामित्र के मुख से गायत्री मंत्र का उच्चारण हुआ था।
सनातन धर्म के पांच प्रमुख देवताओं में सूर्य प्रत्यक्ष देव हैं। ऐसा माना जाता है कि पूजा के दौरान अर्घ्यदान के समय साधक अगर अंजली में जल रखकर सूर्याभिमुख होकर उस जल को भूमि पर गिराता है तो सूर्य की किरणें इस जल धारा को पार करते समय प्रिज्म प्रभाव से अनेक प्रकार की पराबैंगनी किरणें अवलोकित करती हैं। ये किरणें साधक के शरीर में जाने से उपचारी प्रभाव देती हैं।
इस पूजा के संदर्भ में कई मान्यताएं हैं कि कोई भी सूर्य के प्रकोप से नहीं बच सकता। इसलिए छठ काफ़ी सावधानी से किया जाता है। ऐसा माना जाता है इस पर्व में मांगी गई मन्नतें पूरी होती हैं।
छठ पूजा दिवाली के चार दिन बाद चतुर्थ से शुरु होकर चार दिनों तक चलती है। इस पर्व में महिलाएं कई दिन पहले से ही तैयारियां शुरु कर देती हैं। घर के सभी सदस्य इस पूजा में स्वच्छता का पूरा ध्यान रखते हैं। पूजा स्थल पर नहा-धोकर ही जाया जाता हैं और वहीं पर तीनों दिन निवास करने का भी रिवाज है।
पर्व के पहले दिन नहाय-खाय होता है। इस दिन व्रती महिलाएं जिन्हें बिहार में परवईतिन भी कहा जाता है अपने बाल धोकर अरवा चावल, लौकी और चने की दाल का भोजन करती हैं और बाद मे सब लोग इसे प्रसाद के रुप में खाते हैं। व्रती देवकरी में पूजा का सारा सामान रखकर दूसरे दिन खरना की तैयारी में लग जाती हैं। देवकरी पूजा स्थल को कहते हैं।
छठ पूजा के दूसरे दिन व्रती पूरे दिन उपवास रखती हैं और घर की सफाई की जाती है। संध्या काल में मिट्टी के चूल्हा पर लकड़ी के ईंधन से पीतल के बर्तन में गुड़ का खीर और रोटी बनाती हैं। उसके बाद व्रती देवकरी में पूजा कर खीर-रोटी और फल खाती हैं जिसे में प्रसाद के रुप में लोगों को बांटा जाता है।
छठ के तीसरे दिन 24 घंटे का निर्जला व्रत रखा जाता है और सारे दिन पूजा की तैयारी की जाती है। इस त्योहार में ठेकुआ(आटा और घी से बना) बनाना आवश्यक है। इस दिन पूजा के लिये बांस की टोकरी यानी दऊरा देवकरी में रखकर उसमें पूजा का समान रखते हैं। पूजा में चढाने के लिये सभी फल, ठेकुआ, कच्चा हल्दी, शकरकंद, सुथनी, बादाम, अखरोट और लाल कपड़ा रखा जाता है। इन सारे सामानों को सूप में रखकर उसमें दीप आलोकित करते हैं। नारियल को लाल कपड़े में ही लपेट कर रखा जाता है। शाम में सूर्यास्त से पहले घाट जाया जाता है। घर के पुरुष दऊरा लेकर घाट पर जाते हैं और पीछे से व्रती छठ का गीत गाते चलती हैं। व्रती घाट पर स्नान करती हैं और जल में अर्घ्य देने तक खड़ी रहती हैं। पुरुष भी इस व्रत को करते हैं। व्रती सूर्याभिमुख हो कर हाथ में सूप लेकर चारो दिशाओं की ओर परिक्रमा कर सूर्य भगवान को अर्घ्य देती हैं।
अगले दिन प्रातः काल फ़िर उसी अनुष्ठान का पालन करते हुए सूर्योदय के समय व्रती अर्घ्य देती हैं। अर्घ्य के उपरान्त घाट पर पूजा कर पहले व्रती प्रसाद खाती हैं और श्रद्धालुओं को प्रसाद बांटा जाता है। इस पूजा में प्रसाद माँगकर खाने का भी रिवाज है। पूजा के बाद सब लोग व्रती को प्रणाम करते हैं।
व्रती घर आकर चावल, कढ़ी और पकौड़ी से पारण करती हैं।
चार दिन तक चलने वाला यह व्रत सामुदायिक भावना को जाग्रत करता है और सह-अस्तित्व की बानगी भी पेश करता है।
Wednesday, October 21, 2009
छ्ठ पर्व
Tuesday, October 20, 2009
Monday, October 19, 2009
गोवर्धन पूजा – भगवान श्री कृष्ण की अद्भुत लीला
कार्तिक मास की शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को गोवर्धन उत्सव मनाया जाता है । इस दिन बलि पूजा, अन्न कुट, मार्गपाली आदि उत्सव भी सम्पन्न होते है । यह ब्रजवासियो का मुख्य त्यौहार है । अन्नकुट या गोवर्धन पूजा भगवान कृष्ण के अवतार के बाद द्वापर युग से प्रारम्भ हुई । गाय बैल आदि पशुओं को स्नान कराकर फूल माला, धूप, चन्दन आदि से उनका पूजन किया जाता है । गायो का मिठाई खिलाकर उनकी आरती उतारी जाती है तथा प्रदक्षिणा की जाती है । गोबर से गोवर्धन पर्वत बनाकर जल, मौली, रोली, चावल, फूल दही तथा तेल का दीपक जलाकर पूजा करते है तथा परिक्रमा करते है ।
एक बार श्री कृष्ण गोप गोपियो के साथ गाये चराते हुए गोवर्धन पर्वत की तराई में पहुचे । वहाँ उन्होने देखा कि हजारो गोपियाँ गोवर्धन पर्वत के पास छप्पन प्रकार के भोजन रखकर बडें उत्साह से नाच गाकर उत्सव मना रही है । श्री कृष्ण के पूछने पर गोपियो ने बताया कि मेघो के स्वामी इन्द्र को प्रसन्न रखने के लिए प्रतिवर्ष यह उत्सव हता है । कृष्ण बोले यदि देवता प्रत्यक्ष आकर भोग लगाएँ तब तो इस उत्सव की कुछ किमत है । गोपियां बोलीं तुम्हे इन्द्र की निन्दा नहीं करनी चाहीए ।
श्री कृष्ण बोले वर्षा तो गोवर्धन पर्वत के कारण होती है इसलिये हमें इन्द्र की जगह गोवर्धन पर्वत की पूजा करनी चाहिए। सभी गोप ग्वाल अपने अपने घरों में पकवान ला लाकर श्रीकृष्ण की बताई विधी से गोवर्धन पर्वत की पूजा करने लगे । इन्द्र को जब पता चला कि इस वर्ष मेरी पूजा न कर गोवर्धन की पूजा की जा रही है तो वह बहुत कुपित हुए और मेघ को आज्ञा दी कि गोकुल में जाकर इतना पानी बरसाये कि वहाँ पर प्रलय आ जाये। मेघ इन्द्र की आज्ञा से मुसलाधार वर्षा करने लगे। श्रीकृष्ण ने सब गोप गोपियों को आदेश दिया कि सब अपने अपने गाय बछडों को लेकर गोवर्धन की तराई में पहुंच जाएं। गोवर्धन ही मेघ से रक्षा करेंगे । सब गोप-गोपियां अपने अपने गाय बछडों, बैलों को लेकर गोवर्धन पर्वत की तराई में पहुंचने लगे । श्री कृष्ण ने गोर्वधन पर्वत को अपनी कनिष्ठ उँगली पर धारण कर छाता सा तान दिया । सब ब्रजवासी सात दिन तक गोवर्धन पर्वत की शरण में रहे । सुदर्शन चक्र के प्रभाव से ब्रजवासियो पर जल की एक बूँद भी नहीं पडी । ब्रह्याजी ने इन्द्र को बताया कि पृथ्वी पर श्री कृष्ण ने जन्म ले लिया है । उनसे तुम्हारा वैर लेना उचित नहीं है । श्रीकृष्ण अवतार की बात जानकर इन्द्रदेव अपनी मुर्खता पर बहुत लज्जित हुए तथा भगवान श्रीकृष्ण से क्षमा याचना करने लगे । श्रीकृष्ण ने सातवें दिन गोवर्धन पर्वत को नीचे रखकर ब्रजवासियों से कहा कि अब तुम प्रतिवर्ष गोवर्धन पूजा कर अन्नकूट का पर्व मानाया करो । तभी से यह पर्व के रूप में प्रचलित हो गया ।
अब यह घर-घर में प्रचलित है। इस दिन महिलाएं गोबर से आंगन में चौकोर पूरती हैं। चौकोर के मध्य साबुत अन्न रख कर लट्ठ से कूटती हैं। बहनें अपने भाईयों को केराव का दाना निगलने को देती है। साथ में मिठाईयां भी और यदि विवाहित हैं तो अपने घर में भोजन का आमंत्रण देती हैं। शास्त्रों के अनुसार यह भाई-दूज कहलाता और बहन अपने भाई की मंगल कामना करती हैं। कहा जाता है कि इस दिन मृत्यु के देवता यमराज ने अपनी बहन यमुना के घर भोजन किया था।
इस त्योहार के पीछे एक कथा प्रचलित है कहा जाता है कि यम और यमुना भाई-बहन थे। एक दिन यम ने यमुना के यहां खाना खाया और इसी दिन से ही यह त्योहार मनाया जाने लगा। गोधन कूटने के पीछे भी एक कारण है मथुरा में गोधन नाम का एक यदुवंशी रहता था। उसकी पत्नी गोपीयों के साथ कृष्ण के यहां जाती थी। जब भगवान बासुंरी की मीठी तान छोड़ते तो सारी गोपीयां नदी के किनारे चली आती जब गोधन को यह पता चला की उसकी पत्नी भी जाती है तो वह उसे देख्नने लगा तभी श्री कृष्ण ने उसे देखा और मार दिया। गोपीयों ने भी उसे लाठी- डंडे से पीटकर मार दिया। इस दिन स्त्रियां रेगनी के कांटे से अपने भाईयों को श्राप देती हैं और बाद में गोधन को कूट्कर वहां से पानी लाकर श्राप से मुक्ति दिलाने के लिये भगवान से प्रार्थना करती हैं।