प्रमोद रंजन
आखिरकार बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने द्विज सामंतों के सामने आत्मसमर्पण कर दिया। उन्होंने देवव्रत मुखोपाध्याय की अध्यक्षता वाले भूमि सुधार आयोग की सिफारिशों को लागू करने से साफ मना कर दिया है। आयोग ने बिहार में भूमि संबंधों में व्यापक परिवर्तन की वकालत करते हुए नया बटाईदारी कानून लाने की सलाह दी थी। इस कानून के बनने से बिहार में सामंतों और वंचितों की सामाजिक-आर्थिक हैसियत में परिवर्तन आता और जातीय नरसंहारों के सिलसिले का भी स्थायी समाधान हो जाता।
आयोग की रिपोर्ट को लंबे समय तक दबाये रखा गया। बाद में कुछ विधानसभा सीटों के उपचुनाव के ऐन पहले विधानमंडल के पटल पर रख कर इसके कुछ अंशों को लागू करने की घोषणा की गयी। नीतीश कुमार की इस घोषणा के साथ ही बिहार के जमींदारों ने आंखें तरेरनी शुरू कर दीं। उनके दबाव में नीतीश कुमार ने रिपोर्ट के अध्ययन के लिए एक प्रशासनिक अधिकारी की अध्यक्षता में कमेटी के गठन की घोषणा की, जिसका काम आयोग की सिफारिशों पर पानी फेरना था। लेकिन बिहार के द्विज जमींदारों को, जिनसे नीतीश कुमार घिरे हैं, भूमि संबंधों में परिवर्तन की बात सुनना भी गवारा नहीं।
वास्तव में, नीतीश कुमार की राजनीति का रंग-ढंग जानने वालों को उस समय भी आश्चर्य हुआ था, जब उन्होंने भूमि सुधार आयोग की सिफारिशों को लागू करने घोषणा की थी। नीतीश योग्य लोगों से सलाह-मशविरा पसंद करते हैं लेकिन साहसिक फैसला ले सकने का इतिहास उनका नहीं रहा है। निर्णायक मौकों पर उन्हें सामंतों और विभिन्न प्रकार के धंधेबाजों की अपनी स्थायी टोली की ही बात माननी पड़ती है।
उनके कार्यकाल में गठित मुचकुंद दुबे की अध्यक्षता वाले ‘समान स्कूल प्रणाली आयोग’ की सिफारिशों का हश्र हम देख चुके हैं। किसान आयोग की साहसिक सलाह भी कचरे के डब्बे में फेंकी जा चुकी है। कुछ बड़े परिवर्तन का सुझाव देने वाले अति पिछड़ा वर्ग आयोग को सरकार ने अपनी रिपोर्ट बदल देने के लिए कहा है। इन आयोगों का गठन बहुत धूमधाम से किया गया था और देश के कुछ प्रमुख बौद्घिकों को इनसे जोड़ कर उन्होंने खासी प्रशंसा बटोरी थी। लेकिन अपने-अपने क्षेत्रों में दक्षता रखने वाले इन विशिष्ट लोगों की सलाह मानने का साहस उन्होंने नहीं दिखाया। इसके विपरीत महादलितों की बाबत बिठाये गये आयोग ने जब-जब जिस जाति को महादलित श्रेणी में शामिल करने की सलाह दी, तो उसे तत्काल स्वीकार किया गया। इस आयोग की इन सिफारिशों में सामाजिक-आर्थिक परिवर्तन की संभावना शामिल नहीं थी और दलितों का विभाजन रणवीर सेना और भूमि सेना के सेनापतियों के अनुकूल था। दूसरी ओर रणवीर सेना के राजनीतिक संबंधों की जांच करने वाले अमीर दास आयोग की कोई जरूरत नहीं समझी गयी। उसे बिना रिपोर्ट मांगे ही भंग कर दिया गया।
भूमि सुधार आयोग की रिपोर्ट को सिरे से खारिज कर देना भी इसी की एक कड़ी है। साफ तौर पर कहा जाए तो एक कदम आगे बढ़कर दो कदम पीछे जाने की इस राजनीतिक कवायद से नीतीश कुमार का ढुलमुलपन पूरी तरह उजागर हो गया है। 19 अक्तूबर को उन्होंने साफ कहा कि आयोग की सिफारिशें लागू नहीं की जाएंगी।
बिहार में बड़ी जोतों के मालिक द्विजों के अलावा दबंग पिछड़ी जातियां यादव और अवधिया कुर्मी में भी हैं। लेकिन नीतीश कुमार ने यह बयान द्विज जातियों के दबाव में दिया है। वस्तुत: उनकी पिछड़ा राजनीति शुरू से ही द्विज वर्चस्व का शिकार रही है। इसी कारण वे महिलाओं को आरक्षण देने के अलावा कोई परिवर्तनकारी कदम नहीं उठा सके। उन्होंने उन सभी अवसरों को गंवा दिया, जिसके लिए बिहार के वंचित तबकों ने उन्हें सत्ता सौंपी थी। समानता के आग्रही लोगों के लिए चिंता का विषय यह है कि बिहार के दो अन्य राजनेता लालू प्रसाद और रामविलास पासवान भी इस मामले में ज़मींदारों के पक्ष में खड़े रहे हैं।
नीतीश कुमार के इस फ़ैसले को बेहतरीन रणनीति बताने वालों की भी कमी नहीं है। ऐसे लोगों का मानना है कि अगर नीतीश द्विजों की नाराज़गी मोल लेते हैं, तो अगले साल विधानसभा चुनावों में सत्ता में नहीं लौटेंगे। पिछले दिनों हुए उपचुनावों में नीतीश कुमार को हार का सामना करना पड़ा था। उनकी इस हार को भी भूमि सुधार आयोग का परिणाम बताया गया था। प्रचारित किया गया कि आयोग की रिपोर्ट लागू करने की घोषणा से द्विज जातियां नाराज हो गयी हैं और केवल उनका वोट नहीं मिलने से नीतीश कुमार हार गये हैं। जबकि उपचुनावों में उनकी हार का एक का बड़ा कारण दलितों, जिनकी आबादी बिहार में चौदह फीसद से ज्यादा है, का छिटकना भी था। द्विज वोटों के अलावा पिछड़े मुसलमानों के वोटों का एक बड़ा हिस्सा भी कांग्रेस ने नीतीश कुमार से छीन लिया है।
किसी सरकार का प्राथमिक कार्य ‘न्याय’ करना होता है। सामाजिक और आर्थिक दोनों तरह का न्याय और नौकरशाही के सामने उसके अनुरूप दृष्टिकोण को रखना उसके मुख्य काम हैं। विकास और सुशासन जैसे प्रशासनिक काम नौकरशाही के होते हैं। विधायिका को केवल उसकी अच्छी तरह निगरानी करनी चाहिए। नीतीश कुमार पिछले चार साल के कार्यकाल में अपना प्राथमिक कर्तव्य निभाने में न केवल कोताही बरतते रहे हैं बल्कि उनके कई फैसलों से बिहार के वंचित तबकों के साथ अन्याय हुआ है।
उदाहरण के तौर पर उस महादलितों की बाबत बने आयोग की सिफारिशों को भी देखा जा सकता है, जिन्हें न केवल नीतीश कुमार के संकेत पर तैयार किया जाता रहा बल्कि सरकार उन्हें तत्काल लागू भी करती गयी। आयोग की सिफारिशों पर सरकार ने अपेक्षाकृत अधिक शिक्षित और संपन्न धोबी और पासी जाति को भी महादलित की श्रेणी में डाल दिया, जबकि कम शिक्षा वाले रविदास और दुसाध जाति को महादलित की श्रेणी से बाहर रखा क्योंकि ये दोनों जातियां क्रमश: मायावती और रामविलास पासवान का वोट बैंक मानी जाती हैं।
नीतीश कुमार खुद को कर्पूरी ठाकुर की परंपरा का कहते हैं। कर्पूरी ठाकुर ने 1977 में बिहार में पिछड़े वर्गों के लिए शिक्षा और सरकारी नौकरियों में आरक्षण लागू किया था। बाद में उसी की प्रेरणा से राष्ट्रीय स्तर पर मंडल आयोग का गठन हुआ, जिसकी सिफारिशों के सरकारी नौकरियों में आरक्षण वाले हिस्से को वीपी सिंह ने लागू किया। कर्पूरी को अपने इस साहसिक फैसले के कारण मुख्यमंत्री पद छोड़ना पड़ा था। वीपी सिंह का गद्दी गंवाना भी इतिहास के पन्नों में दर्ज है। क्या हम नीतीश कुमार की तुलना इन नेताओं से कर सकते हैं? लोकतंत्र में सत्ता का अस्थायित्व तो बना ही रहेगा। लेकिन यह याद रखना चाहिए कि इतिहास के पन्नों में न्याय करने और अन्याय के पक्ष में खड़े होने वाले सत्ताधीशों की जगह अलग-अलग होती है। (जनसत्ता, 22 अक्टूबर 2009 से साभार)
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सुनील कुमार महला आज की युवा पीढ़ी में वर्चुअल दुनिया के प्रति विशेष लगाव
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