खून फ़िर खून है टपकेगा तो जम जायेगा…
लाख बैठे कोई छुप छुप के कमीन गाहों में में
खून खुद देता है जल्लादों के मसकन का सुराग
तुमने जिस खून को मक़तल में दबाना चाहा
आज वो कूचा-ओ-बाज़ार में आ निकला है
कहीं शोला कहीं नारा कहीं पत्थर बनके
खून चलता है तो रुकता नहीं संगीनों से
ज़ुल्म की बात ही क्या, ज़ुल्म की औकात ही क्या
ज़ुल्म बस ज़ुल्म है आगाज़ से अंजाम तक
---साहिर लुधियानवी
आखिरकार फ़ूट पड़ा गुस्सा। गुस्सा इसी ज़ुल्म के खिलाफ़। गुस्सा व्यवस्था के खिलाफ़, गुस्सा नेताओं के खिलाफ़, और सबसे बड़ा गुस्सा अपने खिलाफ़। अपनी बेरोज़गारी और लाचारी के खिलाफ़ गुस्सा। राज ठाकरे और उसके गिरोह ने तो जो जख्म दिये हैं वो शायद भर भी जायें लेकिन बिहार के नौजवान जिस जख्म के साथ जवान हुए उसकी दवा किसी के पास नहीं है। ठगे ही तो गये हैं यहां के युवा। अंतहीन बेरोजगारी का दंश क्या होता है ये शायद यहाँ के नौजवानों से बेहतर कोई नहीं जानता। आंखों मे एक बेहतर कल का सपना लिये लाखों लड़के। किससे कहते अपना दुख। चढ गया पवन अपने सपनों की बलि। घर में माँ बाप बेटे की नौकरी की आस में बूढे हो रहे हैं। बहनों की शादियाँ रुकी पड़ी हैं। कर्ज़ लेकर नौकरियों के फ़ौर्म भरता रहा था। मरा तो मुम्बई से लाश लाने के लिये भी गाँववालों ने चंदा कर पैसे जुटाये। लेकिन अपने सपनों को यूँ किसी ठाकरे गिरोह के हाथों चकनाचूर होते देखना अब इन आँखों को कतई मंजूर नहीं। क्या कुसूर था इन आँखो का? चंद नेताओं ने तो पहले ही इनके सपनों को बेरंग कर दिया था। आज मौका मिला तो रेल की पटरियाँ और बोगियाँ निशाने पर आ गईं।
खून चलता है तो रुकता नहीं संगीनों से…………………
कुंदन
2 comments:
Kundarn Bhai,
Dil me lagi hai aag,
koi neta ise kya bujha payega.
ham bihari kamjor nahi hain,
ab raj thakrey ko malum chal jayega.
congrats for writing the truth.
कई बार सुना है और एक बार फिर कि पाश ने कहा कहीं ज्यादा बुरा होता है सपनों का मर जाना। इससे पहले कि सपने मरे अपने खड़े हो जायें संगीन की नोक मोड़ने को उनकी तरफ़ जो एक हर्फ़ भी अपनी हलक़ से हमारे खिलाफ़ उपर करने की कोशिश करते हैं। दोस्तों ये संगीन लोहे की नहीं बल्कि इरादों की है। कुन्दन भाई लिखते रहो, सपनों को ज़िन्दा जो रखना है।
हिमवान
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