पटना का प्राचीन नाम पाटलिपुत्र (`पाट्लि` शब्द पाटल से बना है ।) को महावस्तु में पुष्पावती, दीर्घनिकाय में पाटलिपुत्र, रामायण में कौशाम्बी, आवश्यकचूर्णि में पाड्लिपुत्र, युगपुराण में पुष्पपुर, वायुपुराण में कुसुमपुर (कुसुम `पाटल` या `ढाक` का पर्याय है ।), सेलेक्ट इन्सक्रिप्शंस (डी सी सरकार) में पुष्पाह्न्यपुर, अभिलेख (एपिग्राफिया इण्डिका; XV11, 310) में श्रीनगर, दशकुमारचरित में, पुष्पपुरी और मेगास्थनीज ने इसे पोलिबोथ्र, टालेमी ने पालिमबोथ्र, बील (रेकर्डस औफ द वेस्ट्र्न वर्ल्ड) ने प-लियेन-फु तथा व्हेन्त्सांग ने पा-लीन-तौ कहा है ।
इस नगर के नामकरण के बारे में व्हेनत्सांग बताता है कि कुछ युवा छात्रों ने वहाँ पाटलिवृक्ष के नीचे अपने एक उदास मित्र का मिथ्या विवाह पाटलि के पौधे से कर दिया । इस तना का स्त्री नाम होने के कारण इसे उसकी काल्पनिक भार्या बनाया गया । विवाहोपरान्त शादीशुदा मित्र को छोड़ शेष नवयुवक छात्र अपने-अपने घर चले गए । वह पाटलिवृक्ष के नीचे रूक गया। शाम ढलने पर इस वृक्ष का देवता अवतरित हुआ । उसने इसे एक अति सुन्दर कन्या भार्या के रूप में प्रदान किया । कुछ दिनों के पश्चात इस कन्या से एक पुत्र उत्पन्न हुआ जिसके लिए पाटलिवृक्ष ने एक महल का निर्माण किया । यही भवन भावी नगर का केन्द्रबिन्दु बना । इस भवन के चारों ओर नगर बसने के कारण इसका नाम पाटलिपुत्र पड़ गया । व्हेनत्सांग बताता है कि इस नगर के राजभवन के प्रांगण में बहुत-से पुष्प खिले हुए थे और इसीलिए कुसुमपुर के नाम से भी यह नगर प्रसिद्घ हुआ ।
पाली ग्रन्थों के अनुसार भी नगर का निर्माण सुनिधि और वस्सकार (वर्षकार) नामक मंत्रियों ने करवाया था । पाली अनुश्रुति के अनुसार गौतम बुद्ध ने पाटलि के पास कई बार राजगृह और वैशाली के बीच आते-आते गंगा को पार किया था और इस ग्राम की बढ्ती हुई सीमाओं को देखकर भविष्यवाणी की थी कि यह भविष्य में एक महान नगर बन जाएगा ।
ईO पूO लगभग 322 में मौर्य साम्राज्य के संस्थापक चन्द्रगुप्त मौर्य ने पाटलिपुत्र को अपनी राजधानी बनायी । चन्द्रगुप्त मौर्य के काल में यहाँ निर्मित अनेक राजभवनों में पत्थर के अलंकृत टुकडों का प्रयोग प्रथम बार हुआ । साम्राज्य की स्थापना करने वाला वह प्रथम सम्राट था । वह प्रथम भारतीय सम्राट था जिसने अनार्यों, चोर, लूटेरों एवं जंगली जातियों की सेना में बहाल किया । वह प्रथम भारतीय सम्राट था जिसने कन्याओं को अपना निजी संरक्षक बनाया । गुप्तचर विभाग के अनेक पदों एवं विदेशी मेहमानों का स्वागत करने के लिए स्त्रियां नियुक्त की गई । विदेशी मेहमानों से पाटलिपुत्र नगर भरा रहने लगा । यूनानी राजदूत के रूप में चन्द्र्गुप्त मौर्य की राजसभा में मेगास्थनीज आया था । अपने यात्रा-विवरण में पाटलिपुत्र नगर की बनावट के संबंध में वह बतलाता है कि यह नगर सुरक्षा की दृष्टि से चारों तरफ से दीवारों से घिरा था । इस प्राचीर की रचना बाढ़, खतरनाक जानवरों, डाकुओं और आक्रमणकारियों से बचने के लिए किया गया था । प्राचीर के बाद चारों ओर से एक खाई थी, जिसकी चौड़ाई सौ फीट थी और जो साठ फुट गहरी थीं इस नगर में चौंसठ द्वार थे । चारों ओर से घिरे प्राचीर पर लगभग 560 गुम्बज थे । सम्भवतः प्रत्येक गुम्बज में एक छिद्र होता था, जिसके पास तीर चलानेवाले बैठकर नगर की रक्षा दुश्मनों से किया करते थे। नगर में प्रवेश करने वाले नये व्यक्ति का परिचय-पत्र देखा जाता था । नगर में एक मुख्य द्वार था, जिसके दोनो ओर शस्त्रों से सज्जित सैनिक रहा करते थे । बातचीत के क्रम में पहरेदारों को जो संतुष्ट नहीं करते, उन्हें नगर में प्रवेश की अनुमति नहीं मिलती थी । मुख्य द्वारपाल को किलेदार कहा जाता था । उपर्युक्त तथ्यों का विस्तृत वर्णन मेक्रिण्डल द्वारा रचित पुस्तक एन्सिएन्ट इण्डिया ऐज डिस्क्राइवड बाय मेगास्थनीज एन्ड एरियन (कलकता, 1960, पू0 67-150), थामस वाटर्स, एन्सिएन्ट इण्डिया ऐज डिस्क्राइब्ड बाय मेगास्थीज (पृ0 95) ए रिपोर्ट औन कुम्हरार एस्कावेकेशंस, 1951-55 (के0 पी जायसवाल रिसर्च इंस्टीट्यूट, पटना, 1959, (पृ0 8) क्लासिकल लिटरेचर (पृ0 42); राहुल सांकृत्यायन, बुद्धाचार्य (बनारस, 1952 पृच्छा 421); नारायण सिंह कोटला: इण्डिया ऐज डिस्क्राइब्ड बाय मेगास्थ्नीज (दिल्ली, पृ0 62) आदि ग्रन्थों में हुआ है ।
पाटलिपुत्र नगर की परिधि 18-19 किलोमीटर थी । नदी तट के साथ यह नगर चार किलोमीटर तक फैला हुआ था और मिट्टी इके पुश्तों, जलपूरित गम्भीर परिखाओं और प्रबल प्राचीरों से घिरा हुआ था, जिसमें सैकड़ों प्रेक्षणबुर्ज और उठवां पुलों से युक्त 64 द्वार बने हुए थे । खुदाई में 3॰5 मीटर से भी ज्यादा मोटे प्राचीर के अवशेष मिले हैं । उसे भूमि में एक-एक मीटर की गहराई तक गाड़े गए सागौन के शहतीरों को बाड़ की तरह खड़ा करके बनाया गया था । यह एक सुनियोजित नगर था । सीधे और चौड़े मुख्य मार्गो के दोनों ओर वणिकों तथा वारांगनाओं की बहुमंजिली हवेलियां, धर्मशालाएं, अतिथिशालाएं, प्रेक्षागृह, क्रीड़ागार, दूकानें आदि थीं । भवन-निर्माण में अधिकतर काष्ठ का ही प्रयोग किया गया था। ईंटों का प्रयोग बहुत कम हुआ था । यहाँ पत्थर से निर्मित एक भी भवन नहीं था । नगर के मध्य में स्थित सम्राट अशोक का राजप्रासाद भी काष्ठ से ही बना हुआ था और उसमें पत्थर का प्रयोग केवल सभागार के स्तम्भों के निर्माण के लिये किया गया था ।
इस राजप्रासाद का वर्णन करते हुए मेगास्थ्नीज लिखता है कि “अपनी आंतरिक सज्जा और स्वर्ण, रजत, तथा मणि-माणिक्यों के विपुल प्रयोग की दृष्टि से मौर्य सम्राटों के असंख्य स्तम्भयुक्त तिमंजिले प्रासाद के समक्ष सूसा में स्थित पारसीक सम्राटों के विश्वप्रसिद्ध प्रासाद निष्प्रभ लगते थे ।
पाटलिपुत्र बहुत ही सुनियोजित एवं सुव्यवस्थित नगर था । नगर की जल-आपूर्ति, मलवाह-व्यवस्था और स्वच्छ्ता काफी अच्छी थी । व्यापार का वाणिज्य, शिल्प तथा उध्योग, जन्म-मृत्यु-पंजीकरण, विदेशी नागरिकों की निगरानी आदि के लिए नगर प्रशासन के अन्तर्गत विशेष विभाग थे । कानून तथा व्यवस्था और अग्निनिरोध के पालन पर नजर रखने का दायित्व नगर के महापौर पर था ।
इस राजप्रासाद का वर्णन करते हुए मेगास्थ्नीज लिखता है कि “अपनी आंतरिक सज्जा और स्वर्ण, रजत, तथा मणि-माणिक्यों के विपुल प्रयोग की दृष्टि से मौर्य सम्राटों के असंख्य स्तम्भयुक्त तिमंजिले प्रासाद के समक्ष सूसा में स्थित पारसीक सम्राटों के विश्वप्रसिद्ध प्रासाद निष्प्रभ लगते थे ।
पाटलिपुत्र बहुत ही सुनियोजित एवं सुव्यवस्थित नगर था । नगर की जल-आपूर्ति, मलवाह-व्यवस्था और स्वच्छ्ता काफी अच्छी थी । व्यापार का वाणिज्य, शिल्प तथा उध्योग, जन्म-मृत्यु-पंजीकरण, विदेशी नागरिकों की निगरानी आदि के लिए नगर प्रशासन के अन्तर्गत विशेष विभाग थे । कानून तथा व्यवस्था और अग्निनिरोध के पालन पर नजर रखने का दायित्व नगर के महापौर पर था ।
नगर में मोती, चर्णेय, मणियां, हीरे-जवाहरात, मूंगा, संगन्धित लकड़ी, कभी-कभी दिखाई देने वाले जानवरों की ख़ालें, रेशम, लिनेन, सूती वस्त्र आदि की बिक्री होती थी । पाटलिपुत्र में सोना, चाँदी, टील, लोहा, कवच, कम्बल, रस्सी आदि तैयार किये जाते थे । कुछ उध्योगों का सरकारीकरण था। नगरवासी रंगीन वस्त्र एवं बेलबूटेदार मलमल का प्रयोग काफी करते थे । नगर के जीवन की रंगीनियां उसके मदिरालयों, जलपानगृहों, भोजनालयों, सरायों, जुआघरों, वेश्यालयों, तथा कसाईबाड़ों में देखी जा सकती थीं । यहाँ यात्रियों के लिए धर्मशालाएं, शिल्पकारों के लिए कारख़ाने, मदिरालय, भोजनालय, नाटक नाच गान, संगीत, जादूगरी, आदि की व्यवस्था थी ।
सिक्खों के नौवें गुरू तेगबहदुर सिंह दिल्ली के शाही फौज से बचते हुए आसाम की तरफ जा रहे थे । उनकी गर्भवती पत्नी माता गुजरी भी उनके साथ थी । माता गुजरी को उन्होंने बीमारावस्था में पटना के आधुनिक हरमंदिर गली में एक धनी स्वर्णकार के यहाँ रख़ वे आसाम की ओर गये । 22 दिसम्बर 1660 को स्वर्णकार के घर माता गुजरी ने जिस पुत्र को जन्म दिया उसका नाम गुरू गोविन्द सिंह पड़ा । गुरू गोविन्द सिंह जब नौ वर्ष के आयु के थे तो उनके पिता का देहान्त 1669 में हो गया । जन्म से नौ वर्ष तक गुरू गोविन्द सिंह पटना में अपनी माँ के साथ व्यतीत किये । वे दसवें गुरू हुए और पटना छोड़ पंजाब चले गये । जिस स्थान पर गुरू गोविन्द सिंह का जन्म हुआ उसका धार्मिक महत्व बढा । इस स्थान पर महाराजा रणजीत सिंह के समय एक गुरूद्वारा बनवाया गया जिसका नाम तख़्त श्री हरमंदिर पड़ा । ज्यादातर सिक्ख़ इसे पटना साहेब कहते हैं ।
गुरू गोविन्द सिंह के इस जन्म स्थान का दर्शन करने पंजाब से सिक्खों की टोलियां आती रहतीं हैं । गुरू गोविन्द सिंह के जन्म दिन के अवसर पर एक बड़ा जुलूस ( गायघाट के पास गंगापुल से सटे) सिक्ख़ मंदिर से निकल मुख्य गुरूद्वारे तक जाता है । इस दिन यह इलाका ‘सिक्खों का पटना’ लगता । आजादी के पूर्व यह जुलूस साधारण ढंग से निकलता था लेकिन बाद में इसका महत्व बढ गया ।
अंग्रेज और डच व्यापारिक कम्पनियों के प्रयास से पटना सतरहवीं सदी में एक मुख़्य व्यापारिक केन्द्र बन चुका था । यहाँ हुए मुनाफे ने विदेशियों के अलावे अनेक भारतीय व्यापारियों को भी आकर्षित किया था । अनेक जैन व्यापारियों ने पटने में बसना शुरू कर दिया था, जिनमें सबसे प्रसिद्ध हीरानन्द शाह था, जिसने मुगल बादशाह शाहजहाँ के काल में पटना को व्यापारिक केन्द्र बनाया था । भारत के प्रसिद्ध व्यापारी जगत सेठ का व्यापारिक एवं बैंक-शाखा पटना में हीरानन्द शाह के द्वारा स्थापित की गई थी ।
पटने में अँग्रेजों की एक बड़ी संख्या रहने लगी लेकिन मुगलकालीन पटना की घनी बस्ती में इन्हें रहना पसन्द नहीं था । स्थानीय लोगों से अँग्रेज अपने को दूर रखना चाहते थे । मुगलकालीन पटना से काफी पश्चिम में स्थित दानापुर कैन्ट और मुगलकालीन पटना के बीच गंगा के किनारे बसना उन लोगों ने पसन्द किया । 1786 ईO में भविष्य में दुर्भिक्ष से बचने के लिए अनाज का एक गोदाम बनाया गया, जो गोलघर के नाम से जाना जाता है । बिना किसी विशेष योजना के अँग्रेज की अनेक कोठियां गोलघर के आसपास बनीं ।
काफी प्रमुख केन्द्र होने के बावजूद पटना में रहनेवाले अँग्रेजों की संख्या काफी कम थी । जहाँ एक कचहरी, एक सरकारी अतिथिशाला, नगरजज का इजलास, मजिस्ट्रेट का औफिस, कलक्टर का औफिस, व्यापारिक कार्यालय, एक अफीम का एजेन्ट-वितरक और एक प्रांतीय सैनिक कार्यालय था । आधुनिक पटना मेडिकल कौलेज एण्ड हौस्पीटल से लेकर गोलघर तक का क्षेत्र काफी आबादीवाला था । अनेक अँग्रेजों के मकान इस क्षेत्र में थे । बुकानन द्वारा चित्रित पटना के नक्शे में आधुनिक गाँधी मैदान की चर्चा नहीं है । आधुनिक बाकरगंज मुहल्ले की चर्चा बुकानन ने की है । बाकरगंज के पूरब में स्थित मुहल्लों का नाम मुहर्रम्पुर, मुरादपुर, अफजलपुर, और महेन्द्रु बताया गया है । बुकानन के समय बाकरगंज के दक्षिण अर्थात आधुनिक कदमकुआँ और राजेन्द्रनगर में आबादी बिल्कुल नगण्य थी ।
अफीम वितरक सर चार्ल्स द वूली के आतिथ्य में विशौप हेबर नामक अँग्रेज यात्री 1824 ईO में पटना आया था और उसने पटना को सुन्दर बनाने का प्रयास किया था । उसने एक रेसकोर्स बनवाया था, जो आज गाँधी मैदान के नाम से जाना जाता है । इस गाँधी मैदान को मेटकौफ नामक पटना के कमिश्नर ने बनवाया था । इसके बाद अँग्रेजों ने अपने कई प्रशासनिक कार्यालयों को गाँधी मैदान के पास स्थापित किया । आधुनिक सब्जी बाग मुहल्ले में अँग्रेज अधिकारियों के कई बंगले बने । आधुनिक बाँकीपुर मुहल्ले के पास अफीम-व्यापारियों के कई गोदाम स्थापित किये गये थे । पटना के पश्चिमी हिस्से में आखिरी मकान अँग्रेजों ने आधुनिक कुर्जी हौस्पिटल के पास बनवाया था । बाँकीपुर में जज-कोर्ट का पुराना भवन पहले शोरा का गोदाम था ।
सिक्खों के नौवें गुरू तेगबहदुर सिंह दिल्ली के शाही फौज से बचते हुए आसाम की तरफ जा रहे थे । उनकी गर्भवती पत्नी माता गुजरी भी उनके साथ थी । माता गुजरी को उन्होंने बीमारावस्था में पटना के आधुनिक हरमंदिर गली में एक धनी स्वर्णकार के यहाँ रख़ वे आसाम की ओर गये । 22 दिसम्बर 1660 को स्वर्णकार के घर माता गुजरी ने जिस पुत्र को जन्म दिया उसका नाम गुरू गोविन्द सिंह पड़ा । गुरू गोविन्द सिंह जब नौ वर्ष के आयु के थे तो उनके पिता का देहान्त 1669 में हो गया । जन्म से नौ वर्ष तक गुरू गोविन्द सिंह पटना में अपनी माँ के साथ व्यतीत किये । वे दसवें गुरू हुए और पटना छोड़ पंजाब चले गये । जिस स्थान पर गुरू गोविन्द सिंह का जन्म हुआ उसका धार्मिक महत्व बढा । इस स्थान पर महाराजा रणजीत सिंह के समय एक गुरूद्वारा बनवाया गया जिसका नाम तख़्त श्री हरमंदिर पड़ा । ज्यादातर सिक्ख़ इसे पटना साहेब कहते हैं ।
गुरू गोविन्द सिंह के इस जन्म स्थान का दर्शन करने पंजाब से सिक्खों की टोलियां आती रहतीं हैं । गुरू गोविन्द सिंह के जन्म दिन के अवसर पर एक बड़ा जुलूस ( गायघाट के पास गंगापुल से सटे) सिक्ख़ मंदिर से निकल मुख्य गुरूद्वारे तक जाता है । इस दिन यह इलाका ‘सिक्खों का पटना’ लगता । आजादी के पूर्व यह जुलूस साधारण ढंग से निकलता था लेकिन बाद में इसका महत्व बढ गया ।
अंग्रेज और डच व्यापारिक कम्पनियों के प्रयास से पटना सतरहवीं सदी में एक मुख़्य व्यापारिक केन्द्र बन चुका था । यहाँ हुए मुनाफे ने विदेशियों के अलावे अनेक भारतीय व्यापारियों को भी आकर्षित किया था । अनेक जैन व्यापारियों ने पटने में बसना शुरू कर दिया था, जिनमें सबसे प्रसिद्ध हीरानन्द शाह था, जिसने मुगल बादशाह शाहजहाँ के काल में पटना को व्यापारिक केन्द्र बनाया था । भारत के प्रसिद्ध व्यापारी जगत सेठ का व्यापारिक एवं बैंक-शाखा पटना में हीरानन्द शाह के द्वारा स्थापित की गई थी ।
पटने में अँग्रेजों की एक बड़ी संख्या रहने लगी लेकिन मुगलकालीन पटना की घनी बस्ती में इन्हें रहना पसन्द नहीं था । स्थानीय लोगों से अँग्रेज अपने को दूर रखना चाहते थे । मुगलकालीन पटना से काफी पश्चिम में स्थित दानापुर कैन्ट और मुगलकालीन पटना के बीच गंगा के किनारे बसना उन लोगों ने पसन्द किया । 1786 ईO में भविष्य में दुर्भिक्ष से बचने के लिए अनाज का एक गोदाम बनाया गया, जो गोलघर के नाम से जाना जाता है । बिना किसी विशेष योजना के अँग्रेज की अनेक कोठियां गोलघर के आसपास बनीं ।
काफी प्रमुख केन्द्र होने के बावजूद पटना में रहनेवाले अँग्रेजों की संख्या काफी कम थी । जहाँ एक कचहरी, एक सरकारी अतिथिशाला, नगरजज का इजलास, मजिस्ट्रेट का औफिस, कलक्टर का औफिस, व्यापारिक कार्यालय, एक अफीम का एजेन्ट-वितरक और एक प्रांतीय सैनिक कार्यालय था । आधुनिक पटना मेडिकल कौलेज एण्ड हौस्पीटल से लेकर गोलघर तक का क्षेत्र काफी आबादीवाला था । अनेक अँग्रेजों के मकान इस क्षेत्र में थे । बुकानन द्वारा चित्रित पटना के नक्शे में आधुनिक गाँधी मैदान की चर्चा नहीं है । आधुनिक बाकरगंज मुहल्ले की चर्चा बुकानन ने की है । बाकरगंज के पूरब में स्थित मुहल्लों का नाम मुहर्रम्पुर, मुरादपुर, अफजलपुर, और महेन्द्रु बताया गया है । बुकानन के समय बाकरगंज के दक्षिण अर्थात आधुनिक कदमकुआँ और राजेन्द्रनगर में आबादी बिल्कुल नगण्य थी ।
अफीम वितरक सर चार्ल्स द वूली के आतिथ्य में विशौप हेबर नामक अँग्रेज यात्री 1824 ईO में पटना आया था और उसने पटना को सुन्दर बनाने का प्रयास किया था । उसने एक रेसकोर्स बनवाया था, जो आज गाँधी मैदान के नाम से जाना जाता है । इस गाँधी मैदान को मेटकौफ नामक पटना के कमिश्नर ने बनवाया था । इसके बाद अँग्रेजों ने अपने कई प्रशासनिक कार्यालयों को गाँधी मैदान के पास स्थापित किया । आधुनिक सब्जी बाग मुहल्ले में अँग्रेज अधिकारियों के कई बंगले बने । आधुनिक बाँकीपुर मुहल्ले के पास अफीम-व्यापारियों के कई गोदाम स्थापित किये गये थे । पटना के पश्चिमी हिस्से में आखिरी मकान अँग्रेजों ने आधुनिक कुर्जी हौस्पिटल के पास बनवाया था । बाँकीपुर में जज-कोर्ट का पुराना भवन पहले शोरा का गोदाम था ।
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