Saturday, May 9, 2009

मुद्दे प्रतीक होते हैं बर्गालने के लिये

2004 आम चुनावों कुछ दिनों पहले शरद यादव के एक दौरे को कवर करने के लिये मधेपुरा पहुंचा था। शाम का वक्त था शरद चार्टड हेलिकॉप्टर से उतर कर सर्किट हाउस में आराम फरमाने पहुंचे। मेरी पत्रकारिता की अभी अनौपचारिक शुरुआत भर हुई थी। पूरी हिम्मत से मैनें शरद यादव के सामने कुछ सवाल रखे। सवाल मुरहो गांव से जुड़ा था। मुरहो वही गांव है जहां मंडल कमीशन के प्रणेता यानी अध्यक्ष बी पी मंडल का जन्म हुआ था। और शरद पुराने जनता दल के उन खुर्राट नेताओं में से आते हैं जिन्होंने नब्बे के दशक में बी पी मंडल के नाम को जम कर भुनाते हुए केन्द्र में राष्ट्रीय मोर्चा की सरकार बनवाई थी। खैर, सवाल ये था कि मंडल जी का गांव आदर्श ग्राम घोषित होने के बावजूद तमाम ज़रुरी सुविधाओं से क्यूं वंचित है। शरद तब मधेपुरा से सांसद थे। मैने पूछा कम से कम इस पिछड़े इलाक़े का गांव होने के नाते ही बता दें कि आपके स्तर से क्या कुछ हो रहा है या फिर आप कुछ करते क्यूं नहीं है। शरद तो एक दम से भड़क गये। पहले तो कैमरा बंद करवाया और कहा – तुम पत्रकार नहीं बेकार हो। मैं सांसद केवल एक गांव के लिये नहीं हूं। मेरी बड़ी- बड़ी जिम्मेवारियां हैं। मैं पुल बनवाता हूं। उद्धोग धंधे लगवाता हूं। ये पूछो जाकर राज्य सरकार से।

मैं थोड़ी देर के लिये ठगा सा रह गया। सोंचा कि क्या वाकई इलाक़े के सांसद से उसी के संसदीय क्षेत्र के किसी गांव की बदहाली पर सवाल नहीं किये जाते। फिर सोंचा कि दिल्ली में बैठते हैं जहां संसद है। पांचेक साल में आते हैं गांव भला कितना देख पाते होंगे। मैने भी बेतुका सा सवाल कर दिया। मुरहो आदर्श ग्राम है तो है, वोट केवल वहीं से थोड़े ही मिला होगा। सांसद हैं उपर से बड़ी- बड़ी चीजें देखने में व्यस्त रहते होंगे।

शरद से सवाल का जवाब तब मांगा था जब मुरहो के लोगों ने अपनी शिकायत में उन पर भी कुछ ना करने के आरोप लगाये थे। आस पास के लोगों के मुताबिक मुरहो परम्परागत तौर पर राजद का वोट बैंक था और उस समय राबड़ी की सरकार थी।

पत्रकारिता में अपने पदार्पण के दौरान इस ‘मूर्खतापूर्ण’ दुस्साहस का जिक्र मैने इसलिये किया कि मुझे लगा था कि जनता जब वोट देती है – चाहे विधायक बनाने के लिये दे या फिर सांसद के लिये – तब उसके मन में मुद्दे महत्ता के लिहाज से अपनी जगह बनाते हैं। पहले वो खुद एक मुद्दा होता है, उसके बाद परिवार, फिर गांव/ क्षेत्र, राज्य और देश की बारी आती है। पहले तीन के तो तय हैं कि वो इसी क्रम में आते हैं। यानी वोट देते वक्त वोटर विधान सभा और संसद नहीं देखता बल्कि अपने कन्सर्न देखता है। हर वोटर का अपना लोकल कन्सर्न होता है वो नहीं जानता- समझता कि इसकी सुनवाई विधायक करेगा या फिर सांसद।


लेकिन अब इतने सालों में इतना तो जरुर समझ गया हूं कि मुद्दा महज एक प्रतीक होता है। इसका कोई ठोस आकार नहीं होता है। ठोस से मतलब भुखमरी, बेरोज़गारी, बिजली, सड़क और पानी जैसी वाजिब और बेहद ज़रुरी चीजें। ये प्रतीक के तौर पर पांच साल में एक बार पोस्टर, बैनर और भाषणबाजी में शुमार हो जाता है। जाहिर है बर्गलाने के लिये।


अमिताभ हिमवान

1 comment:

tulika jyoti vardhan said...

do not know whether i agree with u or disagree....bcoz issues of concern varies from person to person..and these politicians only remember u when it is election time..rest of the time they hardly care...now its the starting of HORSE TRADING....and every small big regional parties are gearing up..i hope and wish only one thing tht no coalition govt is there at the centre.....rest all is fine..